परमेश्वर की पवित्रता: परिचय
परमेश्वर की पवित्रता एक ऐसा शब्द है जिसको सुन के बहुत सारे विचार और बहुत सारी कशमकश हमारे जहन में पैदा हो जाती है। क्योंकि जब पवित्रता शब्द हमारे कानों तक पहुंचता है तब एक ही बात दिमाग में आती है वो है मेरी आजादी खत्म, अब तो बस खुदा की चलेगी। क्या ये वास्तव में ऐसा ही है जैसा हमारे दिल और दिमाग में आता है? दूसरा विचार जो आता है वो है कि आप को बहुत ही कड़े नियमों का पालन करना पड़ेगा, हर आज्ञा को मानना है (ये तो है) पर क्या वास्तव में पवित्रता ये है?
मैं यकीन करता हूँ कि आपने बहुत सारे संदेश और बाइबल अध्ययनों को सुना होगा जो पवित्रता पर होंगे। जोकि ज्यादातर हमारी पवित्रता पर ही होते है जैसे कि, कैसे हमे पवित्र जीवन जीना है? और हमारे लिए पवित्रता क्या है ऐसा सब कुछ। पर आज मैं आपका ध्यान परमेश्वर की पवित्रता पर लेकर आऊँगा, ताकि आप जाने कि परमेश्वर की पवित्रता क्या है?
और कैसे ये हम पर प्रभाव डालती है? हो सकता है कि ये लेख थोड़ा बड़ा हो, क्योंकि अध्ययन करने के लिए पवित्रता ही बहुत बड़ा विषय है। तो आज हम परमेश्वर की पवित्रता पर अध्ययन करने जा रहे है। मेरी दुआ यही है कि परमेश्वर आप सब की सहायता करे कि आप इसे सही रीति से समझ सके।

परमेश्वर की पवित्रता क्या है? what is the Holiness of God
सबसे पहले आपको इस बात को ही समझना है कि पवित्रता क्या है? पवित्रता को हम कई भागों में समझ सकते है। पर इससे पहले मैं आर. सी. स्परऔल के द्वारा किया एक बहुत ही खूबसूरत अवलोकन आपके सामने लिखना चाहूँगा।
बाइबल कहती है कि परमेश्वर पवित्र,पवित्र, पवित्र है, ना कि ये कि वह केवल पवित्र या पवित्र, पवित्र है। परंतु वह पवित्र, पवित्र, पवित्र है। पवित्रशास्त्र कभी नहीं कहता कि परमेश्वर प्रेम, प्रेम, प्रेम है या कि परमेश्वर दया, दया, दया है और ना ही ये की परमेश्वर क्रोध, क्रोध, क्रोध है और ना ही ये कि परमेश्वर न्याय, न्याय, न्याय, है, पर वह कहती है कि परमेश्वर पवित्र, पवित्र, पवित्र,है और उसकी महिमा सारी धरती पर मौजूद है” आर. सी. स्परऔल
पवित्रता का अर्थ: शब्दों में
पवित्रता का जो अर्थ है अगर उसको शब्दों में बताया जाए तो इस शब्द का एक साफ साफ अर्थ है वो है “अलगाव” यानि कि अलग करना।
ये शब्द एक प्राचीन शब्द से आया है जिसका अर्थ होता है काटना या अलग करना। अगर इसको और अच्छे तरीके से कहा जाए तो इसका अर्थ होगा सबसे उत्तम। उदहारण के लिए जब हम कोई कपड़ा या कोई और वस्तु खरीदते है तो जो उन में से सबसे उत्तम होती है उसके लिए इस शब्द का उपगोय किया जाता था। जो आज हम पवित्रता के लिए उपयोग करते है। मैं उम्मीद करता हूँ कि आप इसको समझ रहे है।
पवित्रता: अपने सारे नैतिक नियमों में शुद्ध या पवित्र होना।
जब परमेश्वर ने सब कुछ बनाया था तब सब कुछ परमेश्वर ने शुद्ध और पवित्र बनाया था। सब कुछ पवित्र किया हुआ और सब शुद्ध था, हम शुद्धता को पवित्रता से अलग नहीं कर सकते। जब हम कहते है कि परमेश्वर पवित्र है तो इसका मतलब परमेश्वर अपने सारे नैतिक गुणों में पूर्ण शुद्ध है। परमेश्वर की पवित्रता इस शुद्धता से भी ऊपर है, ये पवित्र शुद्धता है। जो हम सोच भी नहीं सकते। इसलिए बाइबल परमेश्वर की पवित्र शुद्धता के बारे में बताती है।

परमेश्वर पवित्र हैं।
पवित्रता परमेश्वर के गुणों में से एक गुण हैं। जब बाइबल परमेश्वर के लिए पवित्रता का इस्तेमाल करती है, तो इसका मतलब, परमेश्वर सबसे उत्तम और सबसे ऊपर है। परमेश्वर से ऊपर कोई भी नहीं है। परमेश्वर हमसे बहुत परे और ऊपर है और परमेश्वर की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। बाइबल इस की शिक्षा हमें स्पष्ट रूप से देती हैं कि परमेश्वर पवित्र है सिर्फ एक बार नहीं बल्कि तीन तीन बार परमेश्वर को पवित्र, पवित्र, पवित्र करके बताया गया हैं। (निर्गमन 15:11; 1 शमूएल 2:2; भजन 86:8-10; यशायाह 6:3)
परमेश्वर ऐसा पवित्र है कि वह बुराई को देख ही नहीं सकता। जो शुद्ध नहीं है वो परमेश्वर के पास भी नहीं जा सकता। परमेश्वर की पवित्र शुद्धता बहुत ही ऊँचाई पर है (भजन 23:3-5; यशायाह 6:3-5; हबककुक 1:13) इन आयतों में हम देख सकते है कि परमेश्वर कितना ज्यादा पवित्र शुद्धता की मांग करता है।
जब हम परमेश्वर की पवित्रता की बात करते है तो परमेश्वर की पवित्रता परमेश्वर के सारे गुणों में शामिल हो जाती है।
परमेश्वर की पवित्रता का जीवन पर प्रभाव।
हम परमेश्वर की पवित्रता को पूर्ण तौर पर नहीं समझ सकते, हम सिर्फ उतना ही जान सकते है जितना परमेश्वर ने हम पर अपने वचन के द्वारा प्रगट किया है। परमेश्वर की पवित्रता का हम पर भी उतना ही प्रभाव होता है। बाइबल में कुछ उदहारण है, बहुत नहीं कुछ ही है जिसमें परमेश्वर के जन परमेश्वर की पवित्रता को देखने पाए।
उसका उन पर क्या प्रभाव हुआ ये हम समझने में सहायता करेगी कि कैसे परमेश्वर की पवित्रता एक विश्वासी के जीवन पर प्रभाव डालती है और ये क्यों हमारे लिए जरूरी है कि हम इसे और अच्छे से जाने। परमेश्वर की पवित्रता हमारी ये देखने में मदद करेगी कि हम कितने पाप मे है और हम कैसा जीवन जी रहे है। क्योंकि परमेश्वर की एक ही इच्छा रही है चाहे वो इस्राइल के विषय में हो या कलीसिया के विषय में वो है पवित्रता। (लैव्यव्यवस्था 20:7; 1 पतरस 1:16)।
मूसा के जीवन में परमेश्वर की पवित्रता का प्रभाव
जब हम मूसा के विषय में निर्गमन की पुस्तक में पढ़ते हैं तो हम जान पाते हैं कि मूसा एक ऐसा व्यक्ति है जिसके साथ परमेश्वर ने आमने सामने बातें की। उसने परमेश्वर की अद्वितीय सामर्थ और उसकी पवित्रता का अनुभव बहुत निकटता से किया। उसका परमेश्वर के साथ बहुत ही वास्तविक सम्बन्ध था।
लेकिन (गिनती 20:1-13; 27:12-14)। यहाँ पर मूसा ने वो काम किया जिसकी सजा बहुत ही गंभीर थी। इस भागों में आपको मिलेगा कि मूसा इस्राइल के लोगों पर कादेश में उन पर क्रोधित हो जाता है। क्योंकि वे सब लोग पानी ना होने की वजह से वहाँ पर कुढ़ कुढ़ कर रहे थे। और जब मूसा ने परमेश्वर से प्रार्थना कि तब परमेश्वर ने कहा कि उस चट्टान से बातें कर।
उस चट्टान को नए नियम में पौलुस ने मसीह बताया है (1 कुरिनथियों 10:4) परंतु मूसा ने उस चट्टान से बात करने कि बजाए मूसा ने उस चट्टान पर दो बार लाठी से वार किया। आपको लगेगा कि सिर्फ लाठी ही तो मारी थी इस में इतना बड़ा क्या गलत काम पर दिया। पर ऐसा नहीं है परमेश्वर ने मूसा के इस काम को ऐसे नहीं देखा (गिनती 20:12) परमेश्वर ने मूसा से कहा कि तूने मुझे इस्राइल के लोगों के सामने पवित्र नहीं ठहराया। तो परमेश्वर की आज्ञा को मानना परमेश्वर को पवित्रता को दिखाता है।
परमेश्वर ने मूसा को ये सजा दी कि तुम अब उस वायदे कि देश को देखने भी नहीं सकते। और ये सिर्फ लाठी का मारना नहीं था, बल्कि मूसा ने परमेश्वर की आज्ञा को नहीं माना। इसके बजाय कि वह परमेश्वर का भय मानता, मूसा का क्रोध मूसा पर प्रबल हो गया , और मूसा ने परमेश्वर की बात पर विश्वास नहीं किया (गिनती 20:12)।
यशायाह के जीवन में परमेश्वर की पवित्रता का प्रभाव
दूसरा उदहारण आप यशायाह के विषय में देख सकते है (यशायाह 6:1-10)। जब यहूदा का राज्जा उज्जिय्याह मर चुका तो यशायाह ने देखा कि परमेश्वर राज सिहांसन पर बैठा हैं क्योंकि इस्राइल का राजा मर चुका है, परंतु परमेश्वर है जो इस्राइल का राजा है। परमेश्वर ने अपनी पवित्र महिमा को यशायाह पर प्रगट किया। जब पमेश्वर अपनी पवित्रता को यशायाह पर प्रगट करता है तो वह उस पर पवित्र, पवित्र, पवित्र, करके प्रगट होता है। यशायाह के साथ ऐसा नहीं हुआ जैसा कि आज कल होता है, कुछ लोग परमेश्वर को देखने का दावा करते है। पर वो खुद की ही बड़ाई करते है पर यशायाह के साथ ऐसा नहीं हुआ।
जब यशायाह ने परमेश्वर की पवित्रता को देखा तो उस को इस बात का एहसास हुआ कि वो कितना पापी इंसान है। वो इस बात का अंगीकार करता है कि वो अशुद्ध होंठ वाला इंसान है। किस तरह से यशायाह को अपनी जीभ के पाप दिखाई देने शुरू हो गए थे। फिर जैसे ही यशायाह इस बात को अंगीकार करता है वैसे ही एक सराप वेदी पर से अंगार लेकर उसके होंठों को छूता है। इस जगह पर हम यशायाह की हालत को देख सकते हैं।
आप देख सकते है कैसे परमेश्वर की पवित्रता मानव के जीवन पर असर करती है। मैं उम्मीद करता हूँ कि आपको थोड़ा बहुत परमेश्वर की पवित्रता के बारे में समझ आया होगा। अभी हम कुछ बातें जिन पर ध्यान देने कि बहुत ही जरूरत है, जिन बातों को लेकर हम कभी विचार भी नहीं करते, बल्कि सोच लेते है कि है ये ऐसा ही है। मैं भी जैसे जैसे परेश्वर के गुणों का अध्ययन कर रहा हूँ बहुत सारी ऐसे बातें साफ होती जा रही है जिनको पहले मैंने बिना सोचे या तर्क किये पकड़ रखा था।

क्या परमेश्वर हमको ऐसे ही ग्रहण करता हैं जैसे हम हैं !
परमेश्वर के पास आओ आप जैसे भी हो वो आपको ग्रहण करेगा। इस बात को आपने बहुत बार सुना होगा। पर क्या ये वास्तव में ऐसा है? हम इसका उपयोग दूसरों के लिए भी करते है कि परमेश्वर ने हमे बिना किसी शर्त के ग्रहण किया है तो हमे भी दूसरों को बिना किसी शर्त के ग्रहण करना चाहिए। सुनने में ये काफी अच्छा लगता है।
परंतु बाइबल ऐसा नहीं सिखाती, बल्कि हमे बाइबल में ऐसा कोई सिद्धांत भी नहीं मिलता । बाइबल की सबसे पहली किताब उत्पति में ही हम ये देखने को मिलता है कि परमेश्वर ने कैन की भेट को स्वीकार नहीं क्योंकि कैन का मन परमेश्वर के प्रति सही नहीं था (उत्पति 4)।
परमेश्वर अपने चुने हुए देश इस्राइल के विषय में भी ये कहते है कि उनके लगातार पाप करने के कारण, वो आगे को मेरे लोग नहीं है (होशे 1)। यहाँ तक कि मसीही जन को भी परमेश्वर ऐसे ही स्वीकार नहीं कर लेता जैसा वो जन है नहीं बिल्कुल भी नहीं (याकूब 4:8), बल्कि परमेश्वर एक मसीही जन को इसलिए ग्रहण करता है क्योंकि वो परमेश्वर के पुत्र यीशु के लहू के द्वारा परमेश्वर के पास आता है।जब एक पापी परमेश्वर के सामने अपने पापों को मान लेता हैं। और यीशु मसीह के बलिदान पर विश्वास करता हैं तब ही परमेश्वर उसकी अंगीकार की प्रार्थना सुनता हैं (यहूना 9:31)।
इससे हमे ये सीख मिलती है कि परमेश्वर उस बात को कभी भी ग्रहण नहीं करता जो अपवित्र है। अगर आप भी इसी भ्रम में है। तो आज अवसर है अपने पापों को परमेश्वर के पुत्र के सामने अंगीकार करे और यीशु मसीह को अपने उद्धारकर्ता के रूप में स्वीकार करे। विश्वास करें कि यीशु मसीह का बलिदान के द्वारा ही आप अपने सारे पापों से क्षमा प्राप्त कर सकते हैं। इस बात पर विश्वास करे कि यीशु मसीह मेरे ही पापों के लिए क्रूस पर कुर्बान हुया और कब्र में रखा गया। और परमेश्वर ने उसे मुरदों में से तीसरे दिन जीवित किया।
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